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Unpublished Preface to Buddha and his Dhamma: A book by Dr• Ambedkar

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I was born in the community known in India as the "Untouchables." A question is always being asked of me "How I happened to take such high degrees of education?" Another question is being asked, ' Why I am a buddhist ?" This is the question which I feel that this  preface is the proper place to answer. This is the way it happened .My father was very religious person and he brought me up under a strict religious discipline. Quite early in my carrier, I found certain contradictions in my father religious way of life. He was a 'kabirpanthi'. As such he did not believe in " Moortipuja"(idol Worship). He read the books of his panth. At the same time. he compelled me and my elder brother to read every day before going to bed, a  portion of the 'Ramayana and the Mahabharta' to my sisters and other persons who assembled at my father's house for hearing the 'katha'. This went for a long time number of years. I passed the fourth

सामाजिक क्रांति के पितामह- ज्योति राव फूले जी

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ज्योतिबा फुले जी का जीवन परिचय:- जोतिराव गोविंदराव फुले का जन्‍म 11 अप्रैल 1827 को पुणे में महाराष्‍ट्र की एक  माली जाति में हुआ था। ज्योतिबा के पिता का नाम गोविन्‍द राव तथा माता का नाम विमला बाई था । एक साल की उम्र में ही ज्योतिबा फुले की माता का देहान्‍त हो गया । पिता गोविन्‍द राव जी ने आगे चल कर सुगणा बाई नामक विधवा जिसे वे अपनी मुंह बोली बहिन मानते थे उन्‍हें बच्‍चों की देख-भाल के लिए रख लिया । ज्योतिबा को पढ़ाने की ललक से पिता ने उन्‍हें पाठशाला में भेजा था मगर स्‍वर्णों ने उन्‍हें स्‍कूल से वापिस बुलाने पर मजबूर कर दिया । अब ज्योतिबा अपने पिता के साथ माली का कार्य करने लगे । काम के बाद वे आस-पड़ोस के लोगों से देश-दुनिया की बातें करते और किताबें पढ़ते थे । उन्‍होंने मराठी शिक्षा सन् 1831 से 1838 तक प्राप्‍त की । सन् 1840 में तेरह साल की छोटी सी उम्र में ही ज्योतिबा का विवाह नौ वर्षीय सावित्री बाई (1831-1897) से हुआ । आगे ज्योतिबा का नाम स्‍काटिश मिशन नाम के स्‍कूल (1841-1847) में लिखा दिया गया । जहाँ पर उन्‍होंने थामसपेन की किताब 'राइट्स ऑफ मेन' एवं 'दी एज ऑफ रीजन'

अछूत राज बिछुड़े दुख पाइया, सो गति भई हमारी - गुरु रविदास जी महाराज

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नरपति एक सिंहासन सोया,  सुपने भया भिखारी। अछूत राज बिछुड़े दुख पाइया,  सो गति भई हमारी ।।  उपरोक्त दोहे में सतगुरु, संत ,महानायक रविदास जी एक उदाहरण के साथ बड़ा संदेश दे रहे हैं तथा दुखों को समूल खत्म करने का तरीका बता रहे हैं । इस दोहे में सतगुरु जी देश के बहुजनों के दुखों का कारण बता रहे हैं ,जैसा कि बुद्ध ने बताया था कि दुनिया में दुख है ,दुख का कारण है ,कारण को जानकर दुखों का निवारण किया जा सकता है ,बगैर कारण जाने किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकता । अतः सतगुरु रविदास जी बहुजनों के दुखों का कारण और निवारण बता रहे हैं ।  सतगुरु रविदास महाराज जी कहते हैं कि एक राजा सिंहासन पर सोया हुआ था वैसे सिंहासन सोने के लिए जगह नहीं होता। मगर वह राजा था।  राज सिंहासन पर बैठा था और नींद आ गई। नींद में सपना आया कि उसका राज पाट दुश्मन ने छीन लिया है और वह दर बदर की ठोकरें खाता फिर रहा है और भिखारी का जीवन जी रहा है।  वह जोर-जोर से रो करके हड़बड़ा कर के उठ गया । सभी सभासदों ने रोने का कारण पूछा तो राजा और जोर जोर से रोने लगा और बोला कि मेरे सपने में मेरा राज पाठ किसी ने मुझसे छीन लिया। मैं भिखारी

ऐसा चाहू राज मैं,जहां मिले सबन को अन्न।

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Guru Ravidas ji  ऐसा चाहू राज मैं,जहां मिले सबन को अन्न। छोट-बड़ सब सम बसै,रविदास रहे प्रसन्न।।  व्याख्या संतो के ज्ञान को खाली दार्शनिकता तक ही सीमित रखना ग़लत है । यह समाज के बड़े चिंतक और मार्ग दाता भी थे। संतजन राज पाट की कामना भी करते थे । कहते थे कि आप का अपना  राज होना चाहिए , ताकि अपने प्राचीन धम्म को सलामत रखा जा सके।  सभी वर्गों के लोगों को , बगैर भेदभाव से,  समान अधिकार हासिल हो । उनको सलामत रखने के लिए राजसत्ता का होना निहायत जरूरी है । इसलिए सतगुरु रविदास साहब राज प्राप्ति की कामना करते हैं और साथ में एक शर्त रखते हैं कि उस राज के अंदर की प्रजा के सब लोगों को खाने को भोजन उपलब्ध हो । कोई छोटा - बड़ा नहीं होना चाहिए। सभी समानता के आधार पर बसेरा करें । सतगुरु रविदास साहब कहते हैं उसी में मेरी प्रसन्ता है ।  इस दो लाइन के इस दोहे के अंदर सतगुरु रविदास जी भारतीय संविधान की उद्देशिका के न्याय, स्वतंत्रता, समता और बंधुता का समर्थन करते है।  मैं हूं अमर, कबूह नहीं मरता ,खड़ग विज्ञान चलाउ रे साधो,  सामर्थ साहिब कहलाउ।।  बिरमा, बिसनु का शीश काट मैं, शिव को मार भगाऊँ। आदि शक्ति को पै

संत पलटु दास जी- अपना दीपक स्वयं बनो

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तुझे पराई क्या परी, अपनी ओर निबेर। अपनी और निबेर, छोडि गुड़ बिष को खाए ।। कुवां में तो तू परै, और को राह दिखावै। औरन को उजियार,  मसालची जाए अंधेरे ।। तयों ज्ञानी की बात, मया में रहते घेरे। बेचत फिरे कपूर, आप को खारी खावै।। घर में लागी आग, दौरि के धूर बुतावै। पलटू यह सांची कहे , अपने मन का फेर।। तुझे पराई क्या परी, अपनी ओर निबेर।।  संत गुरु पलटू दास जी कहते हैं कि तुम्हें दूसरों की समस्याओं से क्या लेना । पहले अपनी समस्या का समाधान तो कर ले। पहले अपनी बात सुलझा ले , जिन बातों में तू खुद उलझा हुआ है । जो तू गुड़ (अच्छी बातों ) को छोड़कर विष (बुरी बातें ) खा रहा है।  खुद तो कुए की गर्त में पड़ा है औरों को रास्ता दिखा रहा है।  भला कुए में गिरा हुआ व्यक्ति दूसरों को कैसे राह बता सकता है।  जैसे मसालची दुनिया को उजाला दिखाता है मगर खुद अंधेरे में रहता है,  ठीक ऐसे ही तथाकथित ज्ञानी खुद तो माया यानी मनुवाद के जाल में फंसे रहते हैं और औरों को मुक्ति का मार्ग बताते हैं।  जैसे कपूर बेचने वाले को पता नहीं है की कपूर कितना गुणकारी होता है वह कपूर बेच कर नमक खरीद कर खा रहा है। घर की आग को बुझाने के लि

संत शिरोमणी कबीरदास जी मार्ग दाता - आचार्य धर्मवीर सौरान

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ये बाणी कबीरदास जी के शिष्य गरीब दास जी की है। गजब की सोच और समर्पण है।। रे हँसा , तू है आप सदाता। तेरे ऊपर औऱ ना कर्ता, ये ढक्कन किस नै ढाका।। ईश्वर ,ब्रह्म, आत्म, परमात्म, किया सपन सम हाका। अंतक जाल रचै बहु भांति, इनमे मिलै ना काखा।। गुरु शिकारी बन कै पंछी, करें अकाल समाका। इन नै निर्मल ज्ञान पै पर्दा डाल कै, मिथ्या भरम भराटा।। भाष, अभाष, अनुमान कल्पना, आर पार सब फाँसा। अब निर्णय करके समझ आप को, कौन सबन का आका।। तू है सबका जाणनहारा, अनुभव ज्ञान सलाका। सारे व्यापक और ना कोई, महापुरुषों नै भाख्या।। अजर अमर स्वरूप तेरा, जनम मरण ना वा का। गरीबा कहै , भेट गुरु बुद्धमय, निर्भय उड़ै है खुलासा।। आचर्य धर्मवीर सौरान

बाबा साहब अम्बेडकर की पोती के पति हैं ,आनंद तेलतुबंड़े जी -भँवर मेघवंशी

क्या हमें आनंद तेलतुंबड़े  (बाबा साहब अम्बेडकर की पोती के पति हैं ,आनंद तेलतुबंड़े जी )  की गिरफ्तारी पर खामोश रह जाना चाहिए ? 14 अप्रैल 2020 को जब देश बाबा साहब अम्बेडकर की 129 वी जयंती मना रहा था, तब नागरिक अधिकार कार्यकर्ता,चिंतक ,आलोचक व लेखक प्रोफेसर आनंद तेलतुंबड़े को एनआईए ने हिरासत में ले लिया। कौन है आनंद ? आनंद तेलतुंबड़े भारत ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी काफी चर्चित नाम है,वे अपनी तार्किक और सर्वथा मौलिक टिप्पणियों के लिए जाने जाते हैं,उनकी 30 से अधिक किताबें प्रकाशित हुई है और उनके शोध पत्र,आलेख,समीक्षायें व कॉलम विश्व भर में छपते रहे हैं। वे महाराष्ट्र के यवतमाल जिले के राजुर गांव में जन्में,नागपुर के विश्वेश्वरैया नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से पढ़े,बाद में उन्होंने आई आई एम अहमदाबाद से प्रबंधन की पढ़ाई की और भारत पेट्रोलियम कंपनी लिमिटेड के एग्जीक्यूटिव प्रेसिडेंट बने,उनका कारपोरेट जगत से भी जुड़ाव रहा ,वे पेट्रोनेट के मैनेजिंग डायरेक्टर भी रह चुके हैं,उन्होंने आई आई टी खड़गपुर में अध्यापन भी किया और वर्तमान में वे गोवा इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट

कांशीराम -एक चमत्कार

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बहुजन महानायक साहेब श्री  कांशी राम जी का 10-11,अक्टूबर 1998 को मलेशिया की राजधानी, कुआलालंपुर में दिया गया ऐतिहासिक भाषण, जिसे खुद उन्होंने बाबासाहब के उस भाषण से जोड़ा था जो उन्होंने लाहौर, पंजाब में देना था, लेकिन जो बाद में "जाति का विनाश" किताब के रूप में प्रकाशित हुआ।*  सबसे पहले मै आपको जातिविहीन समाज के निर्माण की दिशा में इस अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन करने के लिए हार्दिक बधाई देना चाहता हुँ I मुझे दुःख है की पार्टी के कार्यो में अति व्यस्तता के कारण मै इस अवसर पर दिए जाने वाले अपने भाषण को लिख नहीं पाया, इसलिए मै सीधे ही आपसे मुखातिब हो रहा हुँ I kansiram  *जाति का विनाश*  सन 1936 में लाहौर के जात-पात तोड़क मंडल ने बाबासाहब अम्बेडकर से जाति विषय पर उनके द्वारा लिखे गए निबंध को मंडल के अधिवेशन में पढ़ने के लिए आमंत्रित किया I लेकिन उस अधिवेशन में बाबासाहब अम्बेडकर को वह निबंध प्रस्तुत नहीं करने दिया गया, वह निबंध बाद में एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया,  जिसका शीर्षक था, "एनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट"(Annihilation of Caste) "अर्थात जाति क

बौद्ध दर्शन समझना आवश्यक है - आचार्य धर्मवीर सौरान

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प्रिय अम्बेडकर बंधुओ आपने जो स्क्रीनशॉट भेजा है उसको देख कर या पढ़ कर कोई भी जवाब बौद्ध दर्शन के बारे में देना मुश्किल है क्योंकि बुद्ध की मृत्यु के मात्र सौ साल बाद ही धर्म के विद्वान आपस में लड़ने लगे थे जब कि सच यह है कि बौद्ध धर्म दुखों से मुक्ति का मार्ग है और यही बुद्ध का दर्शन है मगर बुद्ध के जाने के पश्चात बुद्ध दर्शन को लोगों ने अपने-अपने ढंग से पेश किया।  बुद्ध धर्म में ब्राह्मण घुसपैठ कर चुके थे और अब उन्होंने बुद्ध धर्म को पुनः परिभाषित किया जिससे बुद्ध धर्म की असली परिभषा छूट गई थी बुद्ध के महापरिनिर्वान के  कुछ साल बाद ही वैशाली में थेरवादी बुद्धो ने  दितीय संगीति का आयाजन किया और पाखंड व बुद्ध धर्म के विरोध में किया जाने वाले क्रियाकलापों को रोकने के लिये संघ के कुछ कायदे कानून तय गए थे और जो इन कायदे कानूनों के विरोध में थे उन्हें संघ से निकाल दिया गया था निकले हुए लोगों ने अपना अलग  संघ बनाकर उसको महासंघ तथा दूसरों को हीन ( नीच ) संघ का नाम दिया 249 ई पूर्व सम्राट अशोक ने पाटलीपुत्र में  तीसरी संगीति का आयोजन किया और उसमें बुध धर्म की रूप रेख तय करने के लिए