धार्मिक गुरु का चुनाव करते वक़्त कुछ बातों का रखे ध्यान

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यंहा गुरु का मतलब धार्मिक  है इसका मतलब स्कूल की शिक्षा से नहीं है स्कूल में अध्यपक हैं जो अध्ययन करवाते है और छात्र के दिमाग को जीवन में आगे बढ़ने के लिए तैयार करते हैं जैसे एक किसान फसल तैयार होने से पहले अच्छी तरह खेत को तैयार करता है और अच्छी फसल के सपने के साथ बीज रोपण करता है मगर बेमौसम बारिस , प्राकर्तिक आपदा और अन्य बहुत सी दुर्घटनाए होती है जिसकी  वजह से किसान अपने आपको निसहाय महसूस करता है ऐसे ही जीवन में कुछ लोग गरीब शोषित भोले भाले लोगों का परमात्मा अल्लाह गॉड के नाम पर  पंथ बनाकर शोषण करते है ! अध्यात्म व्यक्तिगत विषय है इसलिए किसी भी  विश्विद्यालय में नहीं पढ़ाया जा सकता !  

गुरु का होना जरूर होता है ?


चेतन पुरुष के लिए गुरु का होना कोई जरूरी नहीं है क्योंकि उसका गुरु खुद का ज्ञान होता है । इसलिए संत कहते हैं कि

कौन गुरु कौन चेला रे साधौ, कौन गुरु कौन चेला।।

 शब्द गुरु चित् चेला रे साधौ,  शब्द गुरु चित् चेला।।


जब इंसान प्रज्ञा की ऊंचाइयों को छूता है तो वह स्वयं का गुरु हो जाता है उसको गुरु की जरूरत नहीं होती है
मगर मनुवादी कहते हैं गुरु होना चाहिए ।गुरु चाहे गूंगा हो ,चाहे पागल हो, नशेड़ी हो । मगर फिर भी गुरु होना चाहिए और गुरु भी  सिर्फ ब्राह्मण होना चाहिए शास्त्रा अनुसार  क्योंकि गुरु के बगैर ज्ञान और ज्ञान के बगैर मुक्ति असंभव है।

गुरु गूंगा गुरु बावला गुरुदेवन सु देव।। चेला गुरु सु मारकी,  करें गुरौ की सेव।।



ब्राह्मण कहता है कि गुरु गूंगा हो चाहे वह बावला यानी पागल हो वह फिर भी गुरु होता है देवताओं का भी देवता होता है और चेले से बहुत बड़ा होता है। चाहे चेला कितना भी विद्वान हो उसे चुपचाप गुरू की सेवा करनी चाहिए
मगर कबीर साहब कहते हैं यह सच्चाई है कि ज्ञान के बगैर मुक्ति नहीं होती है मगर ज्ञान के लिए गुरु का होना कोई जरूरी नहीं है इसलिए कबीर जी कहते हैं कि

या का गुरु तो वा भयो, वा को भयो तो वो।
पहल पहल का कौन कबीरा ,कउ गुरु ज्ञान दियो।


कबीर साहब कहते हैं मान लिया कि  उसका वह गुरु हुआ । उस गुरु का कोई और गुरु हुआ तो बताओ सबसे पहले वाला जो गुरु था उसको ज्ञान किसने दिया।

अहंकार 

आज हम नाम की बारे में जानेंगे तो दोस्तों नाम आदमी जी की जीवन का लंबा सफर होता है ।जैसे पहले बताया जा चुका है जब बच्चा पैदा होता है तो शब्द से स्पर्श, स्पर्श से रूप , रूप से रस , रस से गंध,  गंध से चित, चित से मन, मन से बुद्धि तक पहुंचता है और जब बुद्धि आ जाती है तो उसमें अहंकार आ आ जाता है ।

यहाँ कुछ पाठक  अहंकार को गलत ना समझ ले इसलिए इसकी व्याख्या अति आवशयक है । अहंकार बहुत अच्छी शक्ति होती है । जिस व्यक्ति के अंदर अहंकार नहीं होता उसे मरा हुआ समझिए । वह कुछ नहीं होता है ।अहंकार पाली भाषा का शब्द है।  दो शब्दों से मिलकर बना बना है अहम + आकार यानी के स्वयम का स्वरूप !जो  सजीव व्यक्ति अपना स्वरूप देख लेता है ,वह अपने आप में हस्ती बन जाता है मैं आपो आप हो जाता है अर्थात अतः दीपो  भव हो जाता है।इसलिए अहंकार का होना जरूरी है मगर ब्राह्मणों/पुरोहितों/मौलवियों/पादरियों  ने गुमराह करने के लिए इस शब्द की बड़ी बेइज्जती की है जो कि हमारे धम्म का मुख्य अंग था ।
वह कहते हैं स्वाभिमान बहुत अच्छा होता है मगर अहंकार अच्छा नहीं होता ।स्वाभिमान इसलिए अच्छा होता है क्योंकि वह संस्कृत का शब्द है उसका अर्थ है स्वाभिमान यानी स्वयम का अभिमान ।

हमारे पाठक  अभिमान को भी गलत समझेंगे । अभि पाली भाषा  का शब्द है एक  पिटक भी है अभिधम्म पिटक। अभि का मतलब खुद का या स्वयम का , मान का मतलब महत्व। जो व्यक्ति अहंकार तक , अभिमान तक पहुंच जाता  है तो वह आदमी नाम कमाता है अपने इतिहास को जानता है अपने पूर्वजों की पहचान को जानता है और अपना इतिहास बनाता है इसी  को नाम कहते है।

संत क्या नाम दान देते है।


संत के नाम दान से मतलब बुद्धत्व प्रदान करना होता है  इसके पांच भाग होते हैं । संत सबसे पहले उसे शून्य समाधि देते हैं  शून्य समाधि में अपनी सुरती को एक के विशेष बिंदु यानी दोनों भवों के बीच में रोककर के , अधर में लटकाना होता है और विचार रहित होना होता है । यानी विचारों को सुन्न करना होता है ।उसे सुन्न समाधि कहते हैं ।

कबीर साहब कहते हैं की
सूरत की कमान की खींच ,खिंच राखो सुन्न माही।।
सुरती नीति बुद्धि तीनो  रोको एक थाई।।

जब व्यक्ति सुन समाधि जान जाता है तो वह संवाद में भाग लेता उसको दूसरा भाग संवाद का मिलता है तीसरा
भाग चिंतन होता है चौथा भाग मंथन होता है और मंथन के बाद में पांचवा भाग निर्णय होता है और निर्णय के बाद में मनुष्य का निर्वाण होता है

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