लगातार क्यों आ रहे है सुप्रीम कोर्ट के माध्यम से द लित विरोधी फैसले- अधिवक्ता रजत कलसन
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सुप्रीम कोर्ट भारत की सर्वोच्च न्यायिक संस्था है तथा भारतीय संविधान के अध्याय 4 व 5 के तहत इसे भारत में स्थापित किया गया है सुप्रीम कोर्ट को 'यूनियन ऑफ इंडिया" में सर्वाधिक शक्तियां प्राप्त हैं। जो अधिकार सुप्रीम कोर्ट को भारत संघ में हासिल हैं, वही अधिकार भारत के अलग-अलग राज्यों की हाईकोर्टस को भी अपने अपने राज्यों के संदर्भ में हासिल हैं।
सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्ति भारत का राष्ट्रपति, भारत के मुख्य न्यायाधीश की सलाह से करता है। इसी तरह अलग-अलग राज्यों के हाईकोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति भी वहां के मुख्य न्यायाधीश तथा राज्यपाल की सलाह पर भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। आपको यह बता दें सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के जजों की कुर्सी इतनी ताकतवर होती है कि उन्हें आसानी से हटाया नहीं जा सकता उन्हें हटाने के लिए संसद में उसके खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव लाना पड़ता है तथा महाभियोग का प्रस्ताव दोनों सदनों में पास होने के बाद तब जाकर राष्ट्रपति द्वारा उसे पदच्युत किया जाता है यह एक बहुत ही मुश्किल प्रक्रिया है।
सुप्रीम कोर्ट के बारे में अगर हम बात करें तो सुप्रीम कोर्ट भारत की सर्वोच्च न्यायिक संस्था है जो एक तरह से पॉलिसी व कानून बनाने का काम करती है तथा भारत की संसद द्वारा जो कानून बनाए जाते हैं अगर वे संविधान संगत नहीं है तो सुप्रीम कोर्ट उन्हें निरस्त कर सकती है तथा बहुत से ऐसे मामले हैं जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने जनहित याचिकाओं में दिए गए फैसलों के आधार पर ढेरों कानून बनाए हैं।
सुप्रीम कोर्ट तथा देश की विभिन्न हाई कोर्टस में न्यायाधीशों की नियुक्ति में किसी तरह की आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है । आमतौर पर देखने में आया है कि देश की विभिन्न हाईकोर्ट में उन वकीलों को न्यायाधीश के तौर पर नियुक्ति की जाती है जो सरकार के बेहद नजदीक होते हैं। सुप्रीम कोर्ट तथा देश की हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति एक स्वयंभू नियुक्ति प्रणाली कॉलिजियम सिस्टम द्वारा की जाती है जिसका संविधान में कोई कानून या प्रावधान नहीं है । आजकल इस प्रणाली का मतलब है कि तू मेरे भाई को भर्ती कर, मैं तेरे भतीजे को भर्ती कर लूंगा । एक मोटे - मोटे सर्वे के दौरान देखने में आया है कि देश के ज्यादातर हाईकोर्टस व सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति देश के 200 परिवारों में से ही हो रही है । आज भी देश के हायर जुडिशरी में 75% उच्च जातियों का बोलबाला है।
भारत में सबसे पहले 1950 में अखिल भारतीय न्यायिक सेवा का प्रस्ताव न्यायिक आयोग द्वारा लाया गया था जिसके बाद संविधान में 42वा संशोधन कर तत्कालीन भारत सरकार ने अनुच्छेद 312 में अखिल भारतीय न्यायिक सेवाओं को लागू करने का कानून बनाया । इस कानून का मतलब यह था कि भारतीय सिविल सेवा भारतीय, पुलिस सेवा की तरह भारतीय न्यायिक सेवाओं के लिए भी अखिल भारतीय परीक्षा हो सकेगी तथा उसमें भारतीय संविधान के तहत समान अवसरों की सिद्धांत पर वंचित समाज को भी अखिल भारतीय न्यायिक सेवा में उनका प्रतिनिधित्व मिल सकेगा । इन अखिल भारतीय न्यायिक सेवाओं के तहत सीधा जिला जजों की भर्ती होगी जो बाद में पदोन्नत होकर हाईकोर्ट व सुप्रीम कोर्ट में जा सकेंगे।
परंतु देश की अलग-अलग हाई कोर्ट्स के ऐतराज के बाद यह मामला आगे नहीं बढ़ सका । 27 नवंबर 1986 को भारतीय लॉ कमीशन ने अपनी 116वी रिपोर्ट में फिर अखिल भारतीय न्यायिक सेवाओं की जरूरत जताते हुए इसे स्थापित करने का प्रस्ताव रखा। इसके बाद 1995 में सुप्रीम कोर्ट का फैसला ऑल इंडिया जजेस एसोसिएशन वर्सेस यूनियन ऑफ इंडिया में आया तथा भारत सरकार को ऑल इंडिया ज्यूडिशियल सर्विसेज आरंभ करने के बारे में कहा गया परंतु तब से लेकर आज तक इस बारे में केवल बैठके होती रही । लॉ कमीशन अपनी रिपोर्ट तैयार करके विधि मंत्रालय को तथा विधि मंत्रालय अपने प्रपोजल सुप्रीम कोर्ट को भेजते रहे लेकिन जानबूझकर इस पर कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए अगर ठोस कदम इस पर उठाए जाते और अखिल भारतीय न्यायिक सेवा ही शुरू हो जाती तो मजबूरन सुप्रीम कोर्ट को व केंद्र सरकार को इसमें आईएएस ,आईपीएस की तरह आरक्षण व्यवस्था लागू करनी पड़ती तथा वंचित समुदाय को उच्च न्यायिक सेवाओं में उनका प्रतिनिधित्व मिलता अगर उन्हें प्रतिनिधि मिलता तो वह अपने वर्ग के जायज व संवैधानिक हितों की रक्षा कर पाते।
आप सबको पता है कि चाहे इससे पिछली कांग्रेस सरकार रही हो या मौजूदा भाजपा सरकार हो सभी सरकारें अनुसूचित जाति -जनजाति समुदाय के संवैधानिक अधिकारों उनकी आरक्षण व्यवस्था के खिलाफ हैं । परंतु वोटों की राजनीति के चलते उन्हें मजबूरन आरक्षण लागू करना पड़ रहा है । दशकों से सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट तथा भारत की न्यायिक व्यवस्था की ऐसी तस्वीर पेश की गई है कि यह सच्चाई, निष्पक्षता , समानता के प्रतीक हैं तथा इसी का नाजायज फायदा उठा कर पिछले कुछ समय से दलित समाज के खिलाफ फैसले दिए जा रहे हैं चाहे वह एससी- एसटी एक्ट को कमजोर करने का फैसला हो चाहे समय-समय पर आरक्षण को कमजोर करने के अलग-अलग फैसले हो। दूसरी तरफ मनु वादियों के पक्ष में धड़ल्ले से फैसले दिए जा रहे हैं चाहे वह राम मंदिर का फैसला हो या अन्य मामलों में।
अगर इस बारे में भारत के दलित समाज द्वारा तुरंत संज्ञान नहीं लिया गया तथा 2 अप्रैल 2018 जैसी एकजुटता नहीं दिखाई गई तो आप के बच्चे उच्च शिक्षा व नौकरियों से वंचित कर दिए जाएंगे तथा कभी क्रीमी लेयर के नाम पर आरक्षण तथा कभी न्यायिक समानता के नाम पर आपके आपराधिक कानूनों को खत्म कर दिया जाएगा व फिर से वही मनुस्मृति लागू करने का मनुवादियों का रास्ता साफ करने का इस केंद्र सरकार का प्लान है क्योंकि सीधे-सीधे राजनीतिक दल इसको वोटों की राजनीति के चलते लागू नहीं कर सकते इसलिए पिछले दरवाजे यानी सुप्रीम कोर्ट व हाईकोर्टस से इसे लागू करवाया जा रहा है ।इसके लिए जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट तथा देश के अलग-अलग हाईकोर्ट में आरक्षण की व्यवस्था हो आपके समाज के जज आप के हितों की रक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट के जज के तौर पर वहां नियुक्ति पाएं लेकिन यह तभी हो सकता है जब देश में अखिल भारतीय न्यायिक सेवा शुरू हो । इसके लिए सबसे अच्छा तरीका यह है कि संसद में चुनकर जाने वाले दलित समाज के 131 सांसदों को भारत का दलित समाज द्वारा कहा जाए कि वह इस बारे में संसद में आवाज उठाएं तथा सरकार को मजबूर करें कि अखिल भारतीय न्यायिक सेवाएं शुरू की जाएं अन्यथा वे सरकार से समर्थन वापस लेंगे अगर यह सांसद ऐसा नहीं करते हैं तो इन सांसदों का सामाजिक बहिष्कार किया जाए तथा आगामी लोकसभा चुनाव में ऐसे सांसदों को चुनकर भेजा जाए उनसे इस बात के शपथ पत्र लिए जाए कि वह इस व्यवस्था को लागू कराने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा देंगे। इसके लिए पूरे देश में एक बहुत बड़े आंदोलन की जरूरत है अगर यह व्यवस्था लागू हो जाती है तो हमें पीछे धकेलने का मनु वादियों के पास कोई रास्ता नहीं रहेगा।
रजत कलसन
9896303010
सुप्रीम कोर्ट भारत की सर्वोच्च न्यायिक संस्था है तथा भारतीय संविधान के अध्याय 4 व 5 के तहत इसे भारत में स्थापित किया गया है सुप्रीम कोर्ट को 'यूनियन ऑफ इंडिया" में सर्वाधिक शक्तियां प्राप्त हैं। जो अधिकार सुप्रीम कोर्ट को भारत संघ में हासिल हैं, वही अधिकार भारत के अलग-अलग राज्यों की हाईकोर्टस को भी अपने अपने राज्यों के संदर्भ में हासिल हैं।
सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्ति भारत का राष्ट्रपति, भारत के मुख्य न्यायाधीश की सलाह से करता है। इसी तरह अलग-अलग राज्यों के हाईकोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति भी वहां के मुख्य न्यायाधीश तथा राज्यपाल की सलाह पर भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। आपको यह बता दें सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के जजों की कुर्सी इतनी ताकतवर होती है कि उन्हें आसानी से हटाया नहीं जा सकता उन्हें हटाने के लिए संसद में उसके खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव लाना पड़ता है तथा महाभियोग का प्रस्ताव दोनों सदनों में पास होने के बाद तब जाकर राष्ट्रपति द्वारा उसे पदच्युत किया जाता है यह एक बहुत ही मुश्किल प्रक्रिया है।
सुप्रीम कोर्ट के बारे में अगर हम बात करें तो सुप्रीम कोर्ट भारत की सर्वोच्च न्यायिक संस्था है जो एक तरह से पॉलिसी व कानून बनाने का काम करती है तथा भारत की संसद द्वारा जो कानून बनाए जाते हैं अगर वे संविधान संगत नहीं है तो सुप्रीम कोर्ट उन्हें निरस्त कर सकती है तथा बहुत से ऐसे मामले हैं जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने जनहित याचिकाओं में दिए गए फैसलों के आधार पर ढेरों कानून बनाए हैं।
सुप्रीम कोर्ट तथा देश की विभिन्न हाई कोर्टस में न्यायाधीशों की नियुक्ति में किसी तरह की आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है । आमतौर पर देखने में आया है कि देश की विभिन्न हाईकोर्ट में उन वकीलों को न्यायाधीश के तौर पर नियुक्ति की जाती है जो सरकार के बेहद नजदीक होते हैं। सुप्रीम कोर्ट तथा देश की हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति एक स्वयंभू नियुक्ति प्रणाली कॉलिजियम सिस्टम द्वारा की जाती है जिसका संविधान में कोई कानून या प्रावधान नहीं है । आजकल इस प्रणाली का मतलब है कि तू मेरे भाई को भर्ती कर, मैं तेरे भतीजे को भर्ती कर लूंगा । एक मोटे - मोटे सर्वे के दौरान देखने में आया है कि देश के ज्यादातर हाईकोर्टस व सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति देश के 200 परिवारों में से ही हो रही है । आज भी देश के हायर जुडिशरी में 75% उच्च जातियों का बोलबाला है।
भारत में सबसे पहले 1950 में अखिल भारतीय न्यायिक सेवा का प्रस्ताव न्यायिक आयोग द्वारा लाया गया था जिसके बाद संविधान में 42वा संशोधन कर तत्कालीन भारत सरकार ने अनुच्छेद 312 में अखिल भारतीय न्यायिक सेवाओं को लागू करने का कानून बनाया । इस कानून का मतलब यह था कि भारतीय सिविल सेवा भारतीय, पुलिस सेवा की तरह भारतीय न्यायिक सेवाओं के लिए भी अखिल भारतीय परीक्षा हो सकेगी तथा उसमें भारतीय संविधान के तहत समान अवसरों की सिद्धांत पर वंचित समाज को भी अखिल भारतीय न्यायिक सेवा में उनका प्रतिनिधित्व मिल सकेगा । इन अखिल भारतीय न्यायिक सेवाओं के तहत सीधा जिला जजों की भर्ती होगी जो बाद में पदोन्नत होकर हाईकोर्ट व सुप्रीम कोर्ट में जा सकेंगे।
परंतु देश की अलग-अलग हाई कोर्ट्स के ऐतराज के बाद यह मामला आगे नहीं बढ़ सका । 27 नवंबर 1986 को भारतीय लॉ कमीशन ने अपनी 116वी रिपोर्ट में फिर अखिल भारतीय न्यायिक सेवाओं की जरूरत जताते हुए इसे स्थापित करने का प्रस्ताव रखा। इसके बाद 1995 में सुप्रीम कोर्ट का फैसला ऑल इंडिया जजेस एसोसिएशन वर्सेस यूनियन ऑफ इंडिया में आया तथा भारत सरकार को ऑल इंडिया ज्यूडिशियल सर्विसेज आरंभ करने के बारे में कहा गया परंतु तब से लेकर आज तक इस बारे में केवल बैठके होती रही । लॉ कमीशन अपनी रिपोर्ट तैयार करके विधि मंत्रालय को तथा विधि मंत्रालय अपने प्रपोजल सुप्रीम कोर्ट को भेजते रहे लेकिन जानबूझकर इस पर कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए अगर ठोस कदम इस पर उठाए जाते और अखिल भारतीय न्यायिक सेवा ही शुरू हो जाती तो मजबूरन सुप्रीम कोर्ट को व केंद्र सरकार को इसमें आईएएस ,आईपीएस की तरह आरक्षण व्यवस्था लागू करनी पड़ती तथा वंचित समुदाय को उच्च न्यायिक सेवाओं में उनका प्रतिनिधित्व मिलता अगर उन्हें प्रतिनिधि मिलता तो वह अपने वर्ग के जायज व संवैधानिक हितों की रक्षा कर पाते।
आप सबको पता है कि चाहे इससे पिछली कांग्रेस सरकार रही हो या मौजूदा भाजपा सरकार हो सभी सरकारें अनुसूचित जाति -जनजाति समुदाय के संवैधानिक अधिकारों उनकी आरक्षण व्यवस्था के खिलाफ हैं । परंतु वोटों की राजनीति के चलते उन्हें मजबूरन आरक्षण लागू करना पड़ रहा है । दशकों से सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट तथा भारत की न्यायिक व्यवस्था की ऐसी तस्वीर पेश की गई है कि यह सच्चाई, निष्पक्षता , समानता के प्रतीक हैं तथा इसी का नाजायज फायदा उठा कर पिछले कुछ समय से दलित समाज के खिलाफ फैसले दिए जा रहे हैं चाहे वह एससी- एसटी एक्ट को कमजोर करने का फैसला हो चाहे समय-समय पर आरक्षण को कमजोर करने के अलग-अलग फैसले हो। दूसरी तरफ मनु वादियों के पक्ष में धड़ल्ले से फैसले दिए जा रहे हैं चाहे वह राम मंदिर का फैसला हो या अन्य मामलों में।
अगर इस बारे में भारत के दलित समाज द्वारा तुरंत संज्ञान नहीं लिया गया तथा 2 अप्रैल 2018 जैसी एकजुटता नहीं दिखाई गई तो आप के बच्चे उच्च शिक्षा व नौकरियों से वंचित कर दिए जाएंगे तथा कभी क्रीमी लेयर के नाम पर आरक्षण तथा कभी न्यायिक समानता के नाम पर आपके आपराधिक कानूनों को खत्म कर दिया जाएगा व फिर से वही मनुस्मृति लागू करने का मनुवादियों का रास्ता साफ करने का इस केंद्र सरकार का प्लान है क्योंकि सीधे-सीधे राजनीतिक दल इसको वोटों की राजनीति के चलते लागू नहीं कर सकते इसलिए पिछले दरवाजे यानी सुप्रीम कोर्ट व हाईकोर्टस से इसे लागू करवाया जा रहा है ।इसके लिए जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट तथा देश के अलग-अलग हाईकोर्ट में आरक्षण की व्यवस्था हो आपके समाज के जज आप के हितों की रक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट के जज के तौर पर वहां नियुक्ति पाएं लेकिन यह तभी हो सकता है जब देश में अखिल भारतीय न्यायिक सेवा शुरू हो । इसके लिए सबसे अच्छा तरीका यह है कि संसद में चुनकर जाने वाले दलित समाज के 131 सांसदों को भारत का दलित समाज द्वारा कहा जाए कि वह इस बारे में संसद में आवाज उठाएं तथा सरकार को मजबूर करें कि अखिल भारतीय न्यायिक सेवाएं शुरू की जाएं अन्यथा वे सरकार से समर्थन वापस लेंगे अगर यह सांसद ऐसा नहीं करते हैं तो इन सांसदों का सामाजिक बहिष्कार किया जाए तथा आगामी लोकसभा चुनाव में ऐसे सांसदों को चुनकर भेजा जाए उनसे इस बात के शपथ पत्र लिए जाए कि वह इस व्यवस्था को लागू कराने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा देंगे। इसके लिए पूरे देश में एक बहुत बड़े आंदोलन की जरूरत है अगर यह व्यवस्था लागू हो जाती है तो हमें पीछे धकेलने का मनु वादियों के पास कोई रास्ता नहीं रहेगा।
रजत कलसन
9896303010
Bilkul shi kha sir lekin kis tarah lda jaye in parstithio m
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